शिक्षक धरना दे रहे हैं… पर सवाल ये है — क्या सरकार को कोई फर्क पड़ रहा है?
आजकल देखा जा रहा है कि धरना स्थलों पर टेंट लगे हैं, कुर्सियाँ लगी हैं, कूलर चल रहे हैं, हँसी-मज़ाक का माहौल है — और फिर हम उम्मीद करते हैं कि शासन-प्रशासन हमारी आवाज़ सुने!
क्या ये धरना है? या पिकनिक?
धरना त्याग माँगता है। धरना तपस्या है, संघर्ष है। ये वो आवाज़ है जो व्यवस्था की नींद तोड़ने के लिए होती है।
जब हम खुद अपने धरने को आरामगाह बना देते हैं —
तो सत्ता भी हमें गंभीरता से लेना बंद कर देती है।
धरना कैसा हो?
- चेहरों पर संघर्ष की लकीरें हों, होठों पर सच्चाई के नारे हों।
- हाथ में संविधान, और सीने में विवेकानंद का आत्मबल हो।
- धूप हो, तकलीफ हो — लेकिन आँखों में क्रांति की आग हो।
शासन तभी सुनेगा, जब उसे लगे कि ये शिक्षक सिर्फ तन से नहीं, मन से भी आंदोलन कर रहा है।
कूलर से नहीं, उस पसीने से बदलाव आता है जो संघर्ष की ज़मीन पर बहता है।
--- अब ज़रूरत है — आराम नहीं, आत्मचिंतन की।
धरना दो — लेकिन ऐसा जो दिल दहला दे, शासन हिला दे, और समाज जगा दे।